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Wednesday, 31 August 2016

कुछ ख्वाहिशे......

एक नन्ही सी
जान के साथ
जन्म लेती है
कुछ ख्वाहिशे
फिर वक़्त और
उम्र के साथ
बढ़ती जाती है
निरंतर.....
टूटने लगती है
लेकिन
समय से पहले
जब नही होता
सामर्थ्य, इन्हें पूरा करने का
खुद टूटने के साथ
तोड़ देती है उसको भी
जुडी होती है
जिसके साथ
जिससे...
यूँ ही मगर
समझाना पड़ता है
खुद को
कि नही होती
पूरी..
एक मुफ़लिस की ख्वाहिशे
ना ही हक है उसको
इन्हें संजोने का
कभी कभी नही होता
एहसास उसको
खुद के होने का
जबकि अच्छे से
जानता है मतलब
कुछ पाने का , कुछ खोने का
जानता है ये भी
कि होता है
वजूद मुस्कुराने से ज्यादा
रोने का
जी हाँ ! रोने का .....
पी के तनहा

2 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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पी के ''तनहा''